थल्लिकी वंदनम योजना (Thalliki Vandanam): वोट बैंक की राजनीति या टैक्सपेयर्स के पैसों की मुफ्तखोरी में बर्बादी?

आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा शुरू की गई “थल्लिकी वंदनम योजना” को पहली नज़र में एक समाज कल्याण योजना के रूप में प्रस्तुत किया गया है। योजना के अंतर्गत, जिन परिवारों के बच्चे इंटरमीडिएट या कॉलेज में पढ़ते हैं, उनकी माताओं को ₹15,000 प्रतिवर्ष आर्थिक सहायता दी जाती है। यह सुविधा सीधे बैंक खाते में ट्रांसफर की जाती है। सुनने में यह एक सराहनीय पहल लग सकती है, लेकिन जब इस योजना की गहराई से समीक्षा की जाती है, तो यह स्पष्ट होता है कि इसका मूल उद्देश्य शिक्षा से अधिक राजनीतिक लाभ और वोट बैंक मजबूत करना है।
एक तरफ भारत जैसे विकासशील देश में टैक्स देने वालों की संख्या सीमित है, वहीं दूसरी ओर राज्य सरकारें बिना किसी आर्थिक योजना के मुफ्त योजनाएं लांच कर रही हैं। यह पैसा वहीं से आता है जहां से रोड, अस्पताल, पुलिस, इंफ्रास्ट्रक्चर जैसी बुनियादी ज़रूरतों का खर्च उठाया जाना चाहिए था। सवाल यह उठता है कि क्या सरकार टैक्सपेयर्स की मेहनत की कमाई को उचित दिशा में खर्च कर रही है, या फिर यह सब एक चुनावी स्टंट बनकर रह गया है?
योजना का उद्देश्य बच्चों की शिक्षा में माँ की भूमिका को सम्मान देना है, लेकिन इसमें किसी भी प्रकार की शैक्षणिक गुणवत्ता, उपलब्ध संसाधनों या कौशल विकास पर कोई ज़ोर नहीं है। सिर्फ पैसे देने से शिक्षा में क्रांतिकारी बदलाव की अपेक्षा करना भ्रामक है। इसके अलावा, यह योजना जनसंख्या नियंत्रण के प्रयासों को भी अप्रत्यक्ष रूप से नुकसान पहुंचा रही है। हाल ही में सामने आई रिपोर्ट के अनुसार, एक ही परिवार के 12 बच्चों को इस योजना का लाभ मिला है। यह स्पष्ट संकेत है कि बिना किसी जनसंख्या सीमा या पात्रता की कड़ी जांच के, योजना का दुरुपयोग बड़ी संख्या में हो रहा है।
इस तरह की योजनाएं समाज को आत्मनिर्भर नहीं, बल्कि सरकारी सहायता पर निर्भर बनाने का कार्य कर रही हैं। अगर इसी पैसे को बेहतर स्कूल, डिजिटल शिक्षा, कौशल प्रशिक्षण या छात्रवृत्ति में लगाया जाता, तो शायद वास्तविक परिवर्तन देखने को मिलता। थल्लिकी वंदनम जैसी योजनाएं दिखावे में कल्याणकारी हैं, परंतु असल में ये टैक्सपेयर्स की जेब पर बोझ और वोट बैंक की राजनीति का ज़रिया बन चुकी हैं।
एक ही परिवार में 12 बच्चों को स्कीम का लाभ – क्या थल्लिकी वंदनम ‘जनसंख्या विस्फोट’ को बढ़ावा दे रही है?
आंध्र प्रदेश सरकार की थल्लिकी वंदनम योजना का उद्देश्य भले ही शिक्षा को बढ़ावा देना हो, लेकिन हाल ही में सामने आए मामलों ने इस योजना की खामियों को उजागर कर दिया है। एक चौंकाने वाला उदाहरण तब सामने आया जब एक ही परिवार के 12 बच्चों को इस योजना का लाभ मिला। यह न सिर्फ योजना के दुरुपयोग की ओर इशारा करता है, बल्कि एक गंभीर सवाल खड़ा करता है – क्या ऐसी योजनाएं बिना शर्तों के लागू कर देने से देश में जनसंख्या नियंत्रण की कोशिशें कमजोर नहीं पड़ रही हैं?
भारत पहले से ही जनसंख्या विस्फोट जैसी गंभीर समस्या से जूझ रहा है। स्वास्थ्य, शिक्षा, जल, बिजली और रोजगार जैसे क्षेत्रों पर बढ़ते दबाव का सीधा संबंध असंतुलित जनसंख्या वृद्धि से है। ऐसे में यदि सरकारें बिना किसी जनसंख्या सीमा या पारिवारिक शर्तों के आर्थिक सहायता देना शुरू कर दें, तो यह गरीब परिवारों को अधिक बच्चों को जन्म देने के लिए प्रेरित कर सकता है। क्योंकि जितने ज्यादा बच्चे, उतनी ज्यादा सरकारी मदद।
थल्लिकी वंदनम योजना में किसी भी प्रकार की पात्रता शर्तों में यह नहीं देखा जा रहा कि एक परिवार में कितने बच्चे हैं, या उनके माता-पिता की आयु/संख्या/योग्यता क्या है। यह लापरवाही न सिर्फ सरकारी संसाधनों का अनुचित वितरण कर रही है, बल्कि इससे परिवार नियोजन जैसे अहम सामाजिक प्रयासों को भी झटका लग रहा है। जब एक ही घर में 12 बच्चों को सरकार से ₹15,000 प्रति बच्चा मिल जाए, तो यह एक तरह का प्रोत्साहन बन सकता है – जो समाज में गलत संदेश फैलाता है।
इसके अलावा, इससे टैक्सपेयर पर पड़ने वाला वित्तीय बोझ और भी बढ़ता है। सरकार जो पैसा इन योजनाओं में खर्च कर रही है, वह टैक्सदाताओं से आता है – जिनकी संख्या देश की जनसंख्या के अनुपात में बहुत कम है। जब उनके पैसों का इस्तेमाल इस तरह के अनियंत्रित और अस्थायी लाभों के लिए होता है, तो यह केवल आर्थिक असमानता को नहीं, बल्कि सामाजिक असंतुलन को भी जन्म देता है।
अगर सरकार वाकई में शिक्षा को बढ़ावा देना चाहती है, तो ऐसी योजनाओं को जनसंख्या नियंत्रण जैसे पहलुओं से जोड़ा जाना चाहिए। पात्रता में अधिकतम दो बच्चों की सीमा, अभिभावकों की न्यूनतम शिक्षा या पारिवारिक नियोजन का पालन जैसी शर्तें जोड़ना आवश्यक है। अन्यथा, थल्लिकी वंदनम जैसी स्कीमें शिक्षा के बजाय ‘मुफ्त की आदत’ और ‘बिना ज़िम्मेदारी के लाभ’ को बढ़ावा देकर भारत की जनसंख्या संकट को और गहरा कर सकती हैं।
माँ के नाम पर वोट बैंक साधने की नई रणनीति
थल्लिकी वंदनम योजना को सरकार ने एक भावनात्मक पहल के रूप में प्रस्तुत किया – “माँ” के सम्मान और उसकी भूमिका को केंद्र में रखते हुए। लेकिन जब इसकी घोषणा ठीक चुनाव के बाद और बिना किसी ठोस योजना या स्क्रूटिनी के की गई, तो यह स्पष्ट हो गया कि इसके पीछे एक सुविचारित राजनीतिक एजेंडा है। माँ जैसे पवित्र शब्द के सहारे जनता की भावनाओं को भुनाने की कोशिश की गई, ताकि उसे भावनात्मक रूप से प्रभावित कर वोट बैंक मजबूत किया जा सके।
राजनीति में इस प्रकार की योजनाओं का इस्तेमाल नया नहीं है। सरकारें अक्सर ऐसे भावनात्मक विषयों का सहारा लेती हैं, जिनसे उन्हें सीधे चुनावी लाभ मिल सके। माँ को केंद्र में रखकर योजना बनाना और फिर उसे वोटरों तक इस तरह पहुँचाना कि सरकार उनकी भलाई के लिए समर्पित है – यह एक चुनावी प्रचार रणनीति से कम नहीं लगता। खासतौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में, जहाँ महिलाएं अब भी शिक्षा, स्वास्थ्य और वित्तीय निर्णयों में पिछड़ती हैं, उनके नाम पर नकद राशि देना सरकार को सीधे जन समर्थन का साधन देता है।
यह समझना ज़रूरी है कि किसी भी सामाजिक कल्याण योजना का उद्देश्य वास्तविक परिवर्तन होना चाहिए – केवल वोट जुटाने का साधन नहीं। लेकिन थल्लिकी वंदनम योजना में न तो बच्चों की पढ़ाई की गुणवत्ता पर ज़ोर है, न ही उनकी आगे की शिक्षा या रोजगार पर कोई रोडमैप। सिर्फ पैसे देना और माँ के खाते में ट्रांसफर कर देना – यह न तो शिक्षा सुधार है और न ही महिला सशक्तिकरण।
इस योजना की आलोचना इसलिए नहीं कि यह महिलाओं या माताओं को मदद दे रही है, बल्कि इसलिए कि यह मदद के नाम पर वोट की राजनीति का ज़रिया बन गई है। अगर सरकार सच में माँ की भूमिका को सम्मान देना चाहती है, तो उसे स्वास्थ्य, सुरक्षा, और शिक्षा के बुनियादी ढांचे में निवेश करना चाहिए – न कि केवल पैसे बाँटकर सहानुभूति खरीदनी चाहिए। यही कारण है कि थल्लिकी वंदनम जैसी योजनाओं को सिर्फ कल्याणकारी नहीं, बल्कि रणनीतिक रूप से चुनावी टूल के रूप में भी देखा जा रहा है।
टैक्सपेयर के पसीने की कमाई से बंट रही है मुफ्त की राशि
थल्लिकी वंदनम जैसी योजनाएं जब बिना किसी आर्थिक संतुलन या दीर्घकालिक नीति के लागू की जाती हैं, तो सबसे पहला सवाल उठता है – इसका पैसा कहां से आ रहा है? जवाब है: देश का टैक्सपेयर। वही टैक्सपेयर जो दिन-रात मेहनत करके सरकार को आय देता है, ताकि देश का इंफ्रास्ट्रक्चर सुधरे, स्कूल-कॉलेज बेहतर हों, अस्पतालों में दवाएं मिलें और कानून-व्यवस्था मजबूत हो। लेकिन अफसोस की बात है कि उस पसीने की कमाई का बड़ा हिस्सा अब मुफ्त की योजनाओं में बांटा जा रहा है, जिनका उद्देश्य सामाजिक विकास से ज़्यादा राजनीतिक लाभ दिखता है।
थल्लिकी वंदनम योजना में प्रति छात्र की माँ को ₹15,000 की सीधी आर्थिक सहायता दी जा रही है। यानी एक परिवार में अगर तीन-चार बच्चे भी कॉलेज या इंटरमीडिएट में पढ़ रहे हैं, तो उन्हें सालाना ₹45,000–₹60,000 मिल रहा है – बिना किसी अतिरिक्त प्रयास या शैक्षणिक प्रदर्शन के। यह रकम कोई छोटी राशि नहीं है, खासतौर पर तब जब राज्य पहले से ही कर्ज में डूबा हो और बुनियादी सेवाओं के लिए फंड की कमी हो।
टैक्सपेयर की जिम्मेदारी है कि वह देश के विकास के लिए टैक्स दे, न कि राजनीतिक दलों की मुफ्त योजनाओं का बोझ उठाए। जो लोग दिन-रात काम करके सरकार को टैक्स देते हैं, उन्हें न तो कोई विशेष सुविधा मिलती है, न ही कोई राहत। दूसरी ओर, जो लोग किसी भी तरह की आर्थिक जवाबदेही से मुक्त हैं, उन्हें सीधी नकद सहायता दी जा रही है – सिर्फ इसलिए कि वे भविष्य में एक निश्चित पार्टी को वोट देंगे।
यह नीति न सिर्फ आर्थिक असमानता को बढ़ावा देती है, बल्कि मेहनतकश नागरिकों के मन में न्याय और संतुलन की भावना को भी चोट पहुंचाती है। अगर मुफ्त की ये योजनाएं जारी रहीं, तो न सिर्फ सरकारी खजाना खाली होगा, बल्कि टैक्सपेयर की मानसिकता भी बदल जाएगी – और इसका सीधा असर देश की आर्थिक स्थिति पर पड़ेगा।
इसलिए जरूरी है कि सरकारें हर योजना को लागू करने से पहले यह सोचें कि इसका दीर्घकालिक प्रभाव क्या होगा, और कहीं यह टैक्सपेयर के विश्वास की हत्या तो नहीं कर रही। मुफ्त में पैसा बांटना आसान है, लेकिन जिम्मेदार शासन चलाना एक कला है – जो सिर्फ वोट बटोरने की नीयत से नहीं सीखी जा सकती।
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क्या थल्लिकी वंदनम शिक्षा सुधार है या मुफ्तखोरी का नया मॉडल?
थल्लिकी वंदनम योजना का प्राथमिक उद्देश्य शिक्षा को बढ़ावा देना बताया गया है। सरकार का तर्क है कि इस योजना से माताओं को आर्थिक सहायता मिलेगी जिससे वे अपने बच्चों की पढ़ाई में रुचि लेंगी और उच्च शिक्षा को बढ़ावा मिलेगा। लेकिन हकीकत में योजना की बुनियाद में सिर्फ नकद हस्तांतरण है – न तो कोई शैक्षणिक लक्ष्य निर्धारित है, न ही कोई गुणवत्ता संकेतक। सिर्फ पैसे देने से यह मान लेना कि शिक्षा में सुधार आ जाएगा, एक अधूरी सोच को दर्शाता है।
शिक्षा सुधार का मतलब केवल छात्रों की संख्या बढ़ाना नहीं होता, बल्कि शिक्षण गुणवत्ता, अध्यापक प्रशिक्षण, डिजिटल संसाधनों की उपलब्धता, करियर काउंसलिंग और रोजगार-उन्मुख शिक्षा को बढ़ावा देना होता है। थल्लिकी वंदनम योजना में इन सभी पहलुओं की घोर उपेक्षा की गई है। यह केवल एक आर्थिक लेन-देन बनकर रह गया है – जिसमें राज्य सरकार पैसे देकर अपनी राजनीतिक पकड़ मजबूत कर रही है।
दूसरी तरफ, इस प्रकार की योजना से मुफ्त पाने की आदत को भी प्रोत्साहन मिलता है। छात्र और उनके परिवार यह समझने लगते हैं कि मेहनत या गुणवत्ता के बिना भी सरकारी लाभ लिया जा सकता है। इससे उनमें आत्मनिर्भरता की भावना की बजाय सरकारी निर्भरता बढ़ जाती है – जो कि किसी भी विकसित समाज के लिए खतरे की घंटी है।
अगर सरकार वास्तव में शिक्षा सुधार चाहती, तो वह स्कूलों में बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर, योग्य शिक्षकों की नियुक्ति, स्टूडेंट ट्रैकिंग सिस्टम और स्किल डेवलपमेंट कार्यक्रमों में निवेश करती। लेकिन चूंकि ये सभी सुधार धीमी गति से फल देने वाले हैं, इसलिए सरकार ने त्वरित राजनीतिक लाभ के लिए नकद हस्तांतरण का आसान रास्ता चुना है।
इसलिए यह योजना शिक्षा सुधार कम, और मुफ्तखोरी की प्रवृत्ति को बढ़ावा देने वाला मॉडल ज़्यादा है। जब तक इस तरह की योजनाएं सतही ढांचे में चलेंगी, तब तक शिक्षा के क्षेत्र में कोई गहराई वाला परिवर्तन संभव नहीं हो पाएगा।
मुफ्त में पैसे पाने की आदत: आत्मनिर्भरता की ओर खतरा
भारत जैसे विकासशील देश में जब सरकारें लगातार मुफ्त योजनाओं को बढ़ावा देती हैं, तो इससे सामाजिक मानसिकता पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है। मुफ्त में पैसा मिलना धीरे-धीरे जरूरत से हटकर अधिकार जैसा महसूस होने लगता है। इससे मेहनत, योग्यता और आत्मनिर्भरता जैसी मूलभूत सामाजिक मूल्य कमजोर होने लगते हैं।
थल्लिकी वंदनम योजना इसी मानसिकता का उदाहरण है। जब परिवारों को बिना किसी विशेष प्रयास के सालाना ₹15,000 प्रति छात्र की माँ के खाते में ट्रांसफर किया जा रहा है, तो वे शिक्षा को निवेश नहीं बल्कि लाभ का साधन मानने लगते हैं। इससे समाज में मेहनत के बजाय सरकारी सहायता की उम्मीद बढ़ने लगती है – जो दीर्घकालिक रूप से आत्मनिर्भर भारत की अवधारणा को कमज़ोर करती है।
इसके अलावा, ऐसे परिवार जिनकी आय सीमित है, वे सोचने लगते हैं कि अगर वे ज़्यादा बच्चों को जन्म देंगे, तो ज़्यादा लाभ मिल सकता है। यह विचारधारा जनसंख्या नियंत्रण जैसे महत्वपूर्ण सामाजिक मुद्दों के खिलाफ जाती है। साथ ही, बच्चों की शिक्षा को गुणवत्ता की बजाय मात्र “लाभ प्राप्ति का रास्ता” मानने की प्रवृत्ति भी पनपने लगती है।
सरकार का उद्देश्य यदि वास्तव में सशक्तिकरण है, तो उसे ऐसी योजनाएं बनानी चाहिए जिनमें लाभ परिणाम आधारित हो। जैसे – यदि छात्र की उपस्थिति 90% हो, या ग्रेड बेहतर हो, तो ही सहायता दी जाए। इससे लाभ पाने वालों में मेहनत और प्रतिस्पर्धा की भावना बनी रहेगी।
मुफ्त में पैसा देने से कुछ समय के लिए सामाजिक सरोकार तो दिख सकते हैं, लेकिन लंबे समय में यह एक निर्भर समाज का निर्माण करता है – जो किसी भी लोकतंत्र और अर्थव्यवस्था के लिए सही दिशा नहीं है।
वास्तविक ज़रूरतमंद को मिलेगा लाभ या फिर सियासी फायदा उठाने वालों को?
किसी भी जनकल्याण योजना की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि वह वास्तव में ज़रूरतमंदों तक पहुंचे। लेकिन थल्लिकी वंदनम योजना की लागू प्रक्रिया को देखकर लगता है कि पारदर्शिता और निगरानी में भारी कमी है। ज़्यादा आवेदन, फर्जी दस्तावेज, और सत्तारूढ़ पार्टी के करीबी लोगों को प्राथमिकता – ये सब सवाल खड़े कर रहे हैं कि इस योजना का लाभ किन लोगों को मिल रहा है?
आंध्र प्रदेश के कुछ इलाकों में यह देखा गया कि राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने लोगों को आवेदन में मदद कर चुनावों के दौरान समर्थन लिया। इसके अलावा कई ऐसे परिवारों ने भी इस योजना का लाभ लिया जिनकी आर्थिक स्थिति बेहतर थी, लेकिन उन्होंने गलत जानकारी देकर इसका उपयोग किया।
यह स्थिति बताती है कि यदि कोई भी योजना सिर्फ पहचान पत्र और राशन कार्ड के आधार पर दी जाए, तो उसे आसानी से तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है। इसके उलट, अगर पात्रता की जाँच सामाजिक कार्यकर्ताओं, पंचायतों और ग्रामसभा के माध्यम से हो, तो पारदर्शिता ज़्यादा हो सकती है।
साथ ही, योजना में फीडबैक और रिव्यू सिस्टम का भी अभाव है। कितने छात्रों की पढ़ाई वाकई में सुधरी? कितनी माताओं ने इस पैसे का उपयोग पढ़ाई पर किया? इन सभी सवालों के जवाब नदारद हैं, क्योंकि योजना केवल वितरण तक सीमित रह गई है।
इसलिए यदि सरकार यह सुनिश्चित नहीं करती कि लाभार्थी वाकई ज़रूरतमंद हैं, तो यह योजना केवल सियासी फायदे और जनता को प्रभावित करने का उपकरण बनकर रह जाएगी।
बजट घाटा बढ़ाकर सामाजिक योजनाओं की बाढ़: अर्थव्यवस्था पर खतरा
थल्लिकी वंदनम योजना जैसे सामाजिक लाभ कार्यक्रमों की लागत कोई मामूली नहीं होती। जब लाखों लाभार्थियों को प्रतिवर्ष ₹15,000 दिए जाते हैं, तो यह आंकड़ा हजारों करोड़ तक पहुंच जाता है। यह सारा पैसा राज्य के खजाने से आता है, जो पहले से ही विभिन्न योजनाओं, कर्ज भुगतान और प्रशासनिक खर्चों से दबा हुआ होता है।
यदि राज्य सरकार इस प्रकार की योजनाएं बिना किसी अतिरिक्त राजस्व स्रोत के लागू करती है, तो उसे अपने बजट में कटौती करनी पड़ती है – और अक्सर ये कटौती स्वास्थ्य, सड़क, शिक्षा और बुनियादी सेवाओं पर की जाती है। इसका सीधा असर आम जनता पर पड़ता है, विशेषकर उन पर जो इन सेवाओं पर निर्भर हैं।
इसके अलावा, जब सरकारों को मुफ्त योजनाओं के लिए पैसा चाहिए होता है, तो वे या तो कर्ज लेती हैं या फिर नई कर योजनाएं बनाकर टैक्सपेयर का बोझ बढ़ाती हैं। इसका असर निजी निवेश, व्यापारिक माहौल और आर्थिक विकास दर पर भी पड़ता है।
सिर्फ इसलिए कि कोई योजना वोट दिला सकती है, उस पर हजारों करोड़ खर्च कर देना एक गैर-जिम्मेदाराना आर्थिक नीति का संकेत है। दीर्घकालिक रूप से यह राज्य को कर्ज के जाल में फंसा सकता है, जिससे विकास की रफ्तार धीमी हो जाती है।
इसलिए सरकार को अपनी नीतियों को लाभ और लागत के नजरिए से देखना चाहिए, और सुनिश्चित करना चाहिए कि कोई भी योजना अर्थव्यवस्था पर भारी न पड़े।
टैक्सपेयर्स के पैसे की जवाबदेही कौन तय करेगा?
लोकतंत्र में सरकार जनता द्वारा चुनी जाती है और उसका हर कदम जनता के प्रति जवाबदेह होता है – खासकर उन लोगों के प्रति जो ईमानदारी से टैक्स चुकाते हैं। लेकिन जब सरकारें टैक्सपेयर के पैसों को मुफ्त योजनाओं में बांटती हैं, तो यह सवाल उठता है – इस पैसे की जवाबदेही कौन तय करेगा?
थल्लिकी वंदनम योजना में न तो पारदर्शिता है, न ही किसी स्वतंत्र एजेंसी द्वारा इसकी समीक्षा की जाती है। टैक्सपेयर को यह जानने का कोई अधिकार नहीं कि उसका पैसा किस तरह, किसे और किस उद्देश्य से दिया जा रहा है। क्या यह लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ नहीं है?
इसके अलावा, मुफ्त योजनाओं की घोषणा चुनावों के आसपास की जाती है – जिससे यह और स्पष्ट हो जाता है कि यह सब राजनीतिक मजबूरी या चाल का हिस्सा है, न कि ईमानदार नीतिगत पहल। जवाबदेही के बिना किसी भी योजना को लागू करना न सिर्फ वित्तीय दृष्टिकोण से खतरनाक है, बल्कि यह जनता के बीच अविश्वास भी पैदा करता है।
यह जरूरी है कि सरकारें प्रत्येक योजना के लिए एक स्वतंत्र ऑडिट सिस्टम लागू करें, जिसकी रिपोर्ट जनता के सामने रखी जाए। साथ ही टैक्सपेयर को यह जानने का अधिकार हो कि उसका पैसा कहां और कैसे खर्च हो रहा है।
क्या थल्लिकी वंदनम जैसी योजनाएं युवाओं को शिक्षित करेंगी या सिर्फ वोट दिलवाएंगी?
किसी भी राष्ट्र का भविष्य उसके युवा होते हैं। लेकिन जब योजनाएं सिर्फ पैसे देकर पढ़ाई को “पूरा” मानने लगती हैं, तब शिक्षा का मूल उद्देश्य – विकास, आत्मनिर्भरता और सोचने की क्षमता – खोने लगता है। थल्लिकी वंदनम जैसी योजनाएं यह भरोसा दिलाती हैं कि पैसे से ही पढ़ाई को मापा जा सकता है, जबकि शिक्षा तो चरित्र निर्माण, स्किल डेवलपमेंट और सोचने-समझने की क्षमता को विकसित करने की प्रक्रिया है।
ऐसी योजनाएं जहां छात्र के प्रदर्शन या संकल्पना को नहीं देखा जाता, वहां मेहनत और प्रतिस्पर्धा की भावना कमजोर होती है। छात्र यह समझने लगते हैं कि सरकारी लाभ पढ़ाई से बड़ा उद्देश्य है – और यही सोच उनके करियर और जीवन को प्रभावित करती है।
सरकार को यह विचार करना होगा कि यदि युवा केवल लाभ के लिए पढ़ाई कर रहे हैं, और उसमें भी गुणवत्ता का अभाव है, तो देश का भविष्य खतरे में है। सिर्फ वोट पाने के लिए योजनाएं बनाना आसान है, लेकिन उनमें गुणवत्ता, पारदर्शिता और दीर्घकालिक सोच जोड़ना कठिन – और जरूरी है।