इसराइल और हिज़्बुल्लाह के बीच तनाव की शुरुआत कैसे हुई?

इसराइल और हिज़्बुल्लाह के बीच तनाव कोई नया नहीं है, बल्कि यह दशकों पुराना संघर्ष है जो समय-समय पर नए रूप में उभरता रहता है। हिज़्बुल्लाह, एक ईरान समर्थित शिया मिलिशिया समूह है, जिसकी स्थापना 1980 के दशक में लेबनान में हुई थी। इसका उद्देश्य इसराइल के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष करना और लेबनान से इसराइली प्रभाव को खत्म करना रहा है।
2023 में शुरू हुए इसराइल-हमास युद्ध के बाद हालात और भी अधिक बिगड़ गए। गाज़ा में इसराइली हमलों के जवाब में हिज़्बुल्लाह ने भी उत्तरी इसराइल की सीमा से रॉकेट और ड्रोन हमले शुरू कर दिए। शुरुआत में ये हमले प्रतीकात्मक माने गए, लेकिन समय के साथ इनकी तीव्रता और घातकता बढ़ती गई। हिज़्बुल्लाह का दावा है कि वह फिलिस्तीनियों के समर्थन में यह संघर्ष कर रहा है, जबकि इसराइल इसे अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा के खिलाफ सीधा खतरा मानता है।
जून 2024 से तनाव और अधिक बढ़ गया जब हिज़्बुल्लाह ने इसराइली सैन्य चौकियों पर लगातार हमले तेज कर दिए। इसके जवाब में इसराइल ने लेबनान की सीमा पर भारी गोलाबारी शुरू कर दी, जिससे कई आम नागरिक मारे गए और हजारों को विस्थापित होना पड़ा।
यह संघर्ष अब केवल सीमित सीमा तक नहीं रह गया है, बल्कि इसके पूरे पश्चिम एशिया में फैलने की आशंका गहराती जा रही है। दोनों पक्ष एक-दूसरे को उकसाने और जवाबी कार्यवाही में लगे हैं, जिससे हालात बेहद संवेदनशील हो गए हैं।
गाज़ा युद्ध से लेबनान बॉर्डर तक कैसे फैला संघर्ष?
गाज़ा में शुरू हुआ युद्ध मुख्य रूप से इसराइल और हमास के बीच था, लेकिन इसका प्रभाव धीरे-धीरे पूरे क्षेत्र में महसूस किया जाने लगा। अक्टूबर 2023 में जब हमास ने इसराइल पर एक बड़ा हमला किया और इसराइली सेना ने इसके जवाब में गाज़ा पर भयंकर बमबारी शुरू की, तब से पश्चिम एशिया का सुरक्षा संतुलन डगमगाने लगा। इस संघर्ष ने न केवल फिलिस्तीन के भीतर अशांति बढ़ाई, बल्कि इसराइल की सीमाओं से लगे अन्य क्षेत्रों में भी हिंसा को जन्म दिया।
लेबनान की सीमा पर स्थित हिज़्बुल्लाह, जो पहले से ही इसराइल का विरोधी संगठन रहा है, ने हमास के साथ अपनी “एकता” दिखाने के लिए उत्तरी इसराइल पर रॉकेट और ड्रोन हमले शुरू कर दिए। हिज़्बुल्लाह का दावा था कि वह फिलिस्तीनियों पर हो रहे अत्याचारों का बदला ले रहा है और इसराइल की सैन्य कार्रवाई का जवाब दे रहा है।
इसराइल ने भी इन हमलों का तीव्र जवाब देते हुए लेबनान बॉर्डर पर कई इलाकों में हवाई हमले और तोपों से बमबारी की। हिज़्बुल्लाह के ठिकानों के साथ-साथ आम नागरिक भी इस गोलाबारी की चपेट में आने लगे, जिससे बॉर्डर के दोनों ओर हज़ारों लोग विस्थापित हुए।
इस प्रकार, गाज़ा युद्ध की चिंगारी ने लेबनान की सीमा को भी युद्ध के मैदान में बदल दिया। अब यह संघर्ष केवल इसराइल और हमास तक सीमित नहीं रहा, बल्कि एक व्यापक क्षेत्रीय संघर्ष में तब्दील होता जा रहा है जिसमें हिज़्बुल्लाह, ईरान और अन्य समूह भी सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं।
हिज़्बुल्लाह की भूमिका: ईरान समर्थित संगठन की ताकत
हिज़्बुल्लाह, लेबनान आधारित एक शिया उग्रवादी और राजनीतिक संगठन है जिसकी स्थापना 1982 में उस समय हुई थी जब इसराइल ने लेबनान पर हमला किया था। ईरान द्वारा समर्थित यह संगठन खुद को “इसराइल के खिलाफ प्रतिरोध की ताकत” के रूप में पेश करता है। इसकी सैन्य क्षमता किसी भी नियमित सेना से कम नहीं मानी जाती। हिज़्बुल्लाह के पास रॉकेट, मिसाइल, ड्रोन और आधुनिक युद्धक रणनीतियाँ हैं, जिन्हें वह वर्षों से सीरिया और ईरान की मदद से मजबूत करता आ रहा है।
गाज़ा युद्ध के बाद हिज़्बुल्लाह ने इसराइल के उत्तरी इलाकों में हमला शुरू किया और खुद को फिलिस्तीनियों के संघर्ष का हिस्सा घोषित किया। इस संगठन का मकसद इसराइल को कई मोर्चों पर उलझाना और उसकी सेना की ताकत को विभाजित करना है। ईरान से मिलने वाली फंडिंग और हथियारों के चलते हिज़्बुल्लाह इसराइल के लिए एक गंभीर खतरा बना हुआ है।
इस समय हिज़्बुल्लाह की भूमिका केवल एक सीमावर्ती संगठन तक सीमित नहीं है, बल्कि वह पश्चिम एशिया के कई संघर्षों में एक निर्णायक खिलाड़ी बन चुका है, जिससे पूरे क्षेत्र की स्थिरता पर असर पड़ रहा है।
इसराइल की सैन्य प्रतिक्रिया: हवाई हमलों से बॉर्डर सील तक
गाज़ा युद्ध के बाद जैसे-जैसे लेबनान बॉर्डर पर हिज़्बुल्लाह की ओर से हमले बढ़े, इसराइल ने कड़ा रुख अपनाया। उसने न केवल अपनी उत्तरी सीमा को सील कर दिया बल्कि व्यापक सैन्य कार्रवाई की भी शुरुआत की। इसराइली वायुसेना ने लेबनान की सीमावर्ती पहाड़ियों और गांवों में हिज़्बुल्लाह के ठिकानों को निशाना बनाना शुरू किया। कई बार तोपखाने से बमबारी भी की गई, जिसमें आम नागरिकों की भी मौतें हुईं।
इसराइल की नीति स्पष्ट थी—”एक गोली का दस गुना जवाब”। इसी नीति के तहत छोटे रॉकेट हमलों के जवाब में बड़े पैमाने पर हवाई हमले किए गए। इसराइल ने अपने नागरिकों को उत्तरी क्षेत्रों से हटाकर सुरक्षित स्थानों पर भेजा और सीमा के पास के कई गांव खाली करवा दिए। बॉर्डर पर बड़ी संख्या में सैनिकों को तैनात कर दिया गया है और हर प्रकार की घुसपैठ पर सख्त नजर रखी जा रही है।
इसके अलावा इसराइल ने “आयरन डोम” प्रणाली को उत्तरी सीमा पर सक्रिय कर दिया है ताकि हिज़्बुल्लाह की मिसाइलों को बीच में ही नष्ट किया जा सके। इस पूरी सैन्य प्रतिक्रिया का मकसद न केवल हिज़्बुल्लाह को चेतावनी देना है, बल्कि पूरी दुनिया को यह दिखाना भी है कि इसराइल अपनी सुरक्षा से कोई समझौता नहीं करेगा।
लेबनान में आम जनता पर संकट के बादल
इसराइल और हिज़्बुल्लाह के बीच बढ़ते संघर्ष का सबसे बड़ा खामियाजा लेबनान की आम जनता को भुगतना पड़ रहा है। खासकर दक्षिणी लेबनान में रहने वाले लोग इस समय भय और असुरक्षा के साए में जी रहे हैं। सीमावर्ती इलाकों में लगातार हो रही बमबारी के कारण सैकड़ों घर तबाह हो चुके हैं और हजारों लोग पलायन को मजबूर हो गए हैं।
सिर्फ हिज़्बुल्लाह ही नहीं, बल्कि स्थानीय नागरिक भी इस युद्ध की आग में झुलस रहे हैं। स्कूल, अस्पताल और मस्जिदें भी इसराइली हमलों की चपेट में आई हैं। बिजली, पानी और इंटरनेट जैसी मूलभूत सेवाएं बाधित हो चुकी हैं, जिससे जनता की स्थिति और भी दयनीय हो गई है।
लेबनान की अर्थव्यवस्था पहले ही गंभीर संकट से जूझ रही थी, और अब इस नए संघर्ष ने उस पर और बोझ डाल दिया है। खाद्य सामग्री और दवाइयों की आपूर्ति में भी बाधा आ रही है। मानवाधिकार संगठनों ने चेतावनी दी है कि यदि युद्ध जल्द नहीं रुका तो लेबनान में एक और मानवीय संकट पैदा हो सकता है।
ऐसे हालात में आम लोगों की पुकार है कि दोनों पक्ष शांति का रास्ता अपनाएं, ताकि निर्दोष लोग इस विनाशकारी खेल के शिकार न बनें।
क्या यह पूरा पश्चिम एशिया को युद्ध में झोंक सकता है?
इसराइल और हिज़्बुल्लाह के बीच बढ़ता संघर्ष अब केवल एक सीमित सीमा विवाद नहीं रह गया है। इसकी आंच धीरे-धीरे पूरे पश्चिम एशिया को अपने घेरे में लेने लगी है। ईरान, जो हिज़्बुल्लाह का सबसे बड़ा समर्थक है, खुलकर इस संघर्ष पर अपनी नाराजगी जाहिर कर चुका है। वहीं, सीरिया और इराक में सक्रिय ईरान समर्थित मिलिशिया भी धीरे-धीरे सक्रिय हो रही हैं।
यदि यह स्थिति और बिगड़ती है, तो यमन के हूती विद्रोही, इराक की शिया मिलिशिया, और फिलिस्तीनी गुट जैसे इस्लामिक जिहाद भी इसमें शामिल हो सकते हैं। इससे पूरे क्षेत्र में एक बहुपक्षीय युद्ध की स्थिति बन सकती है। इसराइल को भी कई मोर्चों पर लड़ना पड़ सकता है – गाज़ा, वेस्ट बैंक, लेबनान, सीरिया और संभवतः ईरान तक।
यह भी संभावना है कि अमेरिका और रूस जैसे वैश्विक शक्तियाँ अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार किसी पक्ष को समर्थन दें, जिससे मामला और जटिल हो सकता है। यदि यह युद्ध क्षेत्रीय स्तर से वैश्विक स्तर तक फैलता है, तो तेल आपूर्ति, समुद्री व्यापार और अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर भी गंभीर असर पड़ सकता है। ऐसे में यह संघर्ष सिर्फ दो गुटों के बीच नहीं रह जाएगा, बल्कि एक पूरे क्षेत्र को युद्ध की आग में झोंक सकता है।
अमेरिका और फ्रांस की मध्यस्थता की कोशिशें
बढ़ते तनाव को देखते हुए अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने शांति स्थापना के प्रयास तेज कर दिए हैं। अमेरिका और फ्रांस दोनों ही इसराइल और लेबनान के नेताओं से लगातार संपर्क में हैं और किसी संभावित युद्ध को रोकने की रणनीति बना रहे हैं। अमेरिका, जो इसराइल का प्रमुख सहयोगी रहा है, उसने सार्वजनिक रूप से इसराइल के आत्मरक्षा के अधिकार का समर्थन किया है लेकिन साथ ही युद्ध न फैलाने की अपील भी की है।
फ्रांस, जो ऐतिहासिक रूप से लेबनान से गहरे संबंध रखता है, उसने संयुक्त राष्ट्र के माध्यम से शांति प्रस्तावों को आगे बढ़ाने की कोशिश की है। फ्रांसीसी राजनयिकों ने हाल ही में बेरूत और यरुशलम का दौरा कर दोनों पक्षों को तनाव कम करने के लिए राजी करने की पहल की है।
हालांकि, अब तक कोई निर्णायक सफलता नहीं मिल पाई है क्योंकि इसराइल अपनी सुरक्षा नीति पर अडिग है और हिज़्बुल्लाह लगातार आक्रामक रुख अपनाए हुए है। बावजूद इसके, इन दोनों देशों की मध्यस्थता इस क्षेत्र में संभावित युद्ध को रोकने की दिशा में एक जरूरी कदम मानी जा रही है। यदि ये प्रयास विफल होते हैं, तो भविष्य में यह संघर्ष और भी विनाशकारी रूप ले सकता है।
इसराइल की आंतरिक राजनीति और युद्ध नीति
इसराइल की आंतरिक राजनीति भी इस पूरे संघर्ष में एक अहम भूमिका निभा रही है। प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू की सरकार पर पहले से ही कई तरह के विरोध चल रहे थे – न्यायिक सुधारों को लेकर जनआंदोलन, भ्रष्टाचार के आरोप और सुरक्षा नीतियों पर सवाल। ऐसे में हिज़्बुल्लाह से युद्ध जैसी स्थिति नेतन्याहू को राजनीतिक रूप से लाभदायक भी साबित हो सकती है।
इतिहास गवाह है कि इसराइल की सरकारें जब आंतरिक दबाव में होती हैं, तब वे अक्सर सीमावर्ती संघर्षों में कठोर रुख अपनाती हैं ताकि जनता का ध्यान भीतरी समस्याओं से हटकर बाहरी खतरों पर केंद्रित हो जाए। वर्तमान सरकार ने भी “पूर्ण आत्मरक्षा” की नीति अपनाई है, जिसमें किसी भी हमले का जवाब दुगुनी ताकत से देने की बात कही गई है।
नेतन्याहू सरकार इस युद्ध को अपनी “राष्ट्रीय सुरक्षा की परीक्षा” के रूप में देख रही है। इसके अलावा, इसराइली रक्षा बलों (IDF) को पूरी स्वतंत्रता दी गई है कि वे कब, कहां और किस तरह से कार्रवाई करें। इससे यह संकेत मिलते हैं कि अगर हालात काबू में नहीं आए तो इसराइल एक बड़ा सैन्य ऑपरेशन शुरू कर सकता है, जिससे पूरे क्षेत्र में तनाव और बढ़ सकता है।
हिज़्बुल्लाह की रणनीति और मिसाइल हमलों की ताकत
हिज़्बुल्लाह की रणनीति वर्षों की योजना और तैयारी पर आधारित है। इस संगठन ने लेबनान की पहाड़ियों और गांवों में हजारों भूमिगत ठिकाने बना रखे हैं, जहां से वह आसानी से मिसाइल और ड्रोन हमले कर सकता है। हिज़्बुल्लाह के पास अनुमानतः 1,50,000 से अधिक रॉकेट और मिसाइल हैं, जिनमें से कुछ इसराइल के बड़े शहरों तक पहुंचने की क्षमता रखते हैं।
हिज़्बुल्लाह “गोरिल्ला युद्ध” की रणनीति अपनाता है, यानी खुली लड़ाई की बजाय छिपकर वार करना, सीमावर्ती क्षेत्रों में लगातार छोटी-छोटी झड़पें करना और इसराइल को मनोवैज्ञानिक दबाव में रखना। साथ ही, वह यह भी सुनिश्चित करता है कि लड़ाई की जिम्मेदारी सीधी तरह से उसके ऊपर न आए, जिससे अंतरराष्ट्रीय समुदाय के हस्तक्षेप से बचा जा सके।
उसकी सबसे बड़ी ताकत यह है कि वह लेबनान की राजनीति और सेना दोनों में प्रभाव रखता है। यही कारण है कि इसराइल को उसे किसी सामान्य आतंकवादी संगठन की तरह नहीं बल्कि एक सुसंगठित सैन्य ताकत की तरह देखना पड़ता है।
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सीरिया और ईरान की भूमिका: छाया में चलता समर्थन
इसराइल और हिज़्बुल्लाह के बीच जारी संघर्ष में सीरिया और ईरान की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण लेकिन पर्दे के पीछे है। ईरान लंबे समय से हिज़्बुल्लाह का प्रमुख आर्थिक, सैन्य और वैचारिक समर्थनकर्ता रहा है। हथियार, फंडिंग, ट्रेनिंग और खुफिया जानकारी – ये सभी ईरान द्वारा लगातार हिज़्बुल्लाह तक पहुंचाई जाती रही हैं।
ईरान की इस नीति का उद्देश्य इसराइल के उत्तरी हिस्से में दबाव बनाए रखना है ताकि इसराइल हर समय खतरे की स्थिति में बना रहे और क्षेत्रीय स्तर पर ईरान की रणनीतिक स्थिति मजबूत हो।
दूसरी ओर, सीरिया एक तरह से “लॉजिस्टिक कॉरिडोर” की तरह काम करता है, जहां से हिज़्बुल्लाह को हथियारों की आपूर्ति होती है। सीरिया की धरती पर मौजूद ईरानी मिलिशिया और रिवोल्यूशनरी गार्ड भी इस संघर्ष को गहराने में भूमिका निभाते हैं। इसराइल ने कई बार सीरिया में एयर स्ट्राइक कर वहां छिपे हिज़्बुल्लाह और ईरानी ठिकानों को निशाना बनाया है।
हालांकि, अभी तक ईरान और सीरिया ने सीधे इस युद्ध में शामिल होने से परहेज़ किया है, लेकिन दोनों की छाया में गतिविधियाँ यह संकेत देती हैं कि यदि युद्ध व्यापक हुआ, तो ये देश खुलकर मैदान में आ सकते हैं।
संयुक्त राष्ट्र की चेतावनी और संभावित युद्ध विराम
संयुक्त राष्ट्र (UN) लगातार इस क्षेत्र में शांति बहाल करने की अपील कर रहा है। यूएन महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने हाल ही में एक बयान में कहा कि “पश्चिम एशिया ज्वालामुखी के मुहाने पर खड़ा है, और अगर तुरंत संघर्ष नहीं रोका गया, तो परिणाम बेहद खतरनाक होंगे।”
यूएन की शांति सेना, विशेष रूप से UNIFIL (United Nations Interim Force in Lebanon), जो दक्षिणी लेबनान में तैनात है, इस समय लगातार हिज़्बुल्लाह और इसराइली सेना के बीच संवाद कायम रखने की कोशिश कर रही है। हालांकि, इन कोशिशों में फिलहाल अधिक सफलता नहीं मिली है क्योंकि दोनों पक्ष अपने-अपने रुख पर अड़े हुए हैं।
यूएन ने लेबनान में मानवीय संकट की चेतावनी भी दी है और अंतरराष्ट्रीय समुदाय से अपील की है कि विस्थापितों और पीड़ितों की मदद के लिए आगे आएं। इसके अलावा, यूएन सुरक्षा परिषद में भी इस विषय पर आपात बैठक की योजना बनाई गई है, जहां संघर्षविराम के लिए प्रस्ताव पेश किया जा सकता है।
हालांकि, इस बात की संभावना कम है कि इसराइल और हिज़्बुल्लाह फिलहाल युद्धविराम के लिए तैयार होंगे, लेकिन यूएन की चेतावनियाँ इस बात का संकेत हैं कि अब अंतरराष्ट्रीय दबाव लगातार बढ़ रहा है।
भारत और अन्य देशों की प्रतिक्रिया
भारत, जो विश्व मंच पर संतुलन बनाए रखने की नीति पर चलता है, उसने इस संघर्ष को लेकर गंभीर चिंता व्यक्त की है। विदेश मंत्रालय की ओर से जारी बयान में कहा गया है कि भारत इसराइल की सुरक्षा चिंताओं को समझता है लेकिन वह क्षेत्रीय शांति और स्थिरता का भी पक्षधर है। भारत ने सभी पक्षों से संयम बरतने और वार्ता के माध्यम से समाधान निकालने की अपील की है।
भारत की इस स्थिति के पीछे कई कारण हैं – एक ओर उसका इसराइल के साथ गहरा रक्षा और तकनीकी संबंध है, वहीं दूसरी ओर अरब देशों और ईरान के साथ भी वह अपने संबंध मजबूत बनाए हुए है।
इसके अलावा, भारत के हजारों नागरिक खाड़ी देशों और इसराइल-लेबनान क्षेत्र में कार्यरत हैं। यदि युद्ध व्यापक होता है, तो भारत को बड़ी संख्या में लोगों की निकासी करनी पड़ सकती है। इस कारण भारत की चिंता और भूमिका दोनों अहम हो जाती हैं।
अन्य देशों जैसे चीन, रूस, जर्मनी, यूके और तुर्की ने भी शांति और संयम की अपील की है। अमेरिका और यूरोपीय संघ सक्रिय रूप से मध्यस्थता कर रहे हैं, जबकि कई मुस्लिम देश हिज़्बुल्लाह और फिलिस्तीनी पक्ष के समर्थन में बयान दे रहे हैं।
क्या यह तीसरे लेबनान युद्ध की शुरुआत है?
2006 में इसराइल और हिज़्बुल्लाह के बीच जोषण युद्ध हुआ था, जिसे द्वितीय लेबनान युद्ध कहा गया। वह युद्ध 34 दिनों तक चला था और लेबनान में भारी तबाही मच गई थी। आज जब सीमा पर फिर वही हालात बन रहे हैं—रॉकेट हमले, हवाई बमबारी, नागरिकों का विस्थापन—तो यह सवाल उठने लगा है: क्या यह तीसरे लेबनान युद्ध की शुरुआत है?
विशेषज्ञों का मानना है कि स्थिति अगर इसी तरह बनी रही और कोई कूटनीतिक समाधान नहीं निकला, तो एक पूर्ण युद्ध की संभावना बेहद प्रबल है। इस बार हालात 2006 से कहीं अधिक जटिल हैं – हिज़्बुल्लाह की सैन्य क्षमता कई गुना बढ़ चुकी है, इसराइल की तकनीकी शक्ति भी पहले से कहीं अधिक सशक्त है, और क्षेत्रीय समीकरण भी पहले से अलग हैं।
यदि तीसरा लेबनान युद्ध शुरू होता है, तो इसका असर केवल लेबनान और इसराइल तक सीमित नहीं रहेगा। यह पूरे मध्य पूर्व को हिला सकता है और संभव है कि अमेरिका, ईरान, सीरिया और अन्य शक्तियाँ भी इस जंग में अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष रूप से शामिल हो जाएं।
मीडिया कवरेज और सोशल मीडिया का युद्ध में असर
इस संघर्ष में मीडिया की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण हो गई है। परंपरागत मीडिया चैनल जहां युद्ध की रिपोर्टिंग में लगे हैं, वहीं सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर असंख्य वीडियो, फोटो और टिप्पणियाँ फैल रही हैं। ट्विटर (अब X), फेसबुक, इंस्टाग्राम और टेलीग्राम जैसे प्लेटफार्मों पर दोनों पक्ष अपनी-अपनी “सचाई” को प्रमोट कर रहे हैं।
हिज़्बुल्लाह और इसराइली रक्षा बल (IDF) दोनों ही सोशल मीडिया के माध्यम से युद्ध के अपने-अपने पक्ष को अंतरराष्ट्रीय जनता तक पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं। कभी-कभी झूठी खबरें या पुराने वीडियो भी वायरल हो रहे हैं, जिससे भ्रम की स्थिति बन रही है।
इसके साथ ही, कई अंतरराष्ट्रीय पत्रकार संघर्ष क्षेत्र में अपनी जान जोखिम में डालकर ग्राउंड रिपोर्टिंग कर रहे हैं। परंतु युद्ध क्षेत्र में निष्पक्ष रिपोर्टिंग करना बेहद मुश्किल हो गया है क्योंकि दोनों पक्षों की ओर से मीडिया को नियंत्रित करने या डराने के प्रयास हो रहे हैं।
सोशल मीडिया का यह डिजिटल युद्ध कभी-कभी जमीन पर हो रहे संघर्ष से भी अधिक प्रभावशाली साबित हो सकता है, क्योंकि इससे अंतरराष्ट्रीय जनमत बनता है और कूटनीतिक नीतियों पर भी असर पड़ता है।
बॉर्डर से विस्थापित लोगों की स्थिति
इसराइल और हिज़्बुल्लाह के बीच चल रहे संघर्ष के सबसे बड़े पीड़ित सीमावर्ती क्षेत्रों के आम लोग हैं। लेबनान की दक्षिणी सीमा और इसराइल के उत्तरी भागों में रहने वाले हजारों लोग अपने घर-बार छोड़कर सुरक्षित स्थानों की ओर पलायन कर चुके हैं। इनमें महिलाएं, बच्चे और बुज़ुर्ग बड़ी संख्या में शामिल हैं, जो बुनियादी सुविधाओं के बिना अस्थायी शिविरों में रह रहे हैं।
लेबनान के गांवों में रहने वाले नागरिक लगातार बमबारी के साए में हैं। स्कूल और अस्पताल बंद हो चुके हैं, और बिजली-पानी जैसी सुविधाएं ठप पड़ी हैं। कई रिपोर्टों में सामने आया है कि लोग खाने-पीने की वस्तुओं और दवाइयों की भारी किल्लत से जूझ रहे हैं। वहीं इसराइल के सीमावर्ती कस्बों में भी हालात असामान्य हैं। हजारों नागरिकों को अस्थायी शिविरों में शरण दी गई है।
संयुक्त राष्ट्र और अन्य अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों ने इन विस्थापितों की स्थिति को मानवीय संकट घोषित किया है। लेबनान सरकार भी सीमित संसाधनों के कारण बहुत अधिक सहायता नहीं दे पा रही है। यदि युद्ध की स्थिति और बढ़ती है, तो विस्थापितों की संख्या लाखों तक पहुंच सकती है, जिससे पूरे क्षेत्र में शरणार्थी संकट उत्पन्न हो सकता है।
अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों की रिपोर्ट
इसराइल और हिज़्बुल्लाह के बीच चल रहे इस संघर्ष को लेकर अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन अत्यंत चिंतित हैं। ह्यूमन राइट्स वॉच (HRW), एमनेस्टी इंटरनेशनल और रेड क्रॉस जैसी संस्थाओं ने दोनों पक्षों पर आरोप लगाए हैं कि आम नागरिकों को निशाना बनाया जा रहा है और युद्ध के मानवीय नियमों का उल्लंघन हो रहा है।
खासकर लेबनान में हवाई हमलों के दौरान आवासीय इलाकों, स्कूलों और अस्पतालों को नुकसान पहुंचा है, जिसे “असमान सैन्य प्रतिक्रिया” बताया गया है। वहीं, हिज़्बुल्लाह द्वारा नागरिक क्षेत्रों से रॉकेट दागे जाने को भी अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संहिताओं का उल्लंघन बताया गया है।
इन संगठनों ने संघर्ष क्षेत्र में तत्काल मानवीय सहायता पहुंचाने की अपील की है और सभी पक्षों से युद्धविराम लागू करने का आग्रह किया है। इसके अलावा, संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार समिति भी युद्ध के दौरान हुए कथित ‘युद्ध अपराधों’ की जांच पर विचार कर रही है।
मानवाधिकार संगठनों ने स्पष्ट कहा है कि चाहे कोई भी पक्ष हो, नागरिकों की सुरक्षा सर्वोपरि होनी चाहिए। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो भविष्य में अंतरराष्ट्रीय न्यायालयों में इस युद्ध से जुड़े मामलों पर सुनवाई संभव है।
इसराइली ‘आयरन डोम’ बनाम हिज़्बुल्लाह मिसाइल
इस युद्ध में एक तकनीकी टकराव भी देखने को मिल रहा है—इसराइल का अत्याधुनिक ‘आयरन डोम’ डिफेंस सिस्टम बनाम हिज़्बुल्लाह की मिसाइल और ड्रोन क्षमताएं। ‘आयरन डोम’ इसराइल की मिसाइल रक्षा प्रणाली है, जो शॉर्ट-रेंज रॉकेट्स और मोर्टार शेल्स को हवा में ही नष्ट करने में सक्षम है। गाज़ा युद्ध में यह काफी प्रभावशाली रहा था, और अब उत्तरी सीमा पर भी सक्रिय कर दिया गया है।
वहीं दूसरी ओर, हिज़्बुल्लाह के पास बड़ी मात्रा में लंबी दूरी की मिसाइलें और उन्नत ड्रोन हैं, जो कभी-कभी आयरन डोम की पकड़ से भी बच निकलते हैं। हिज़्बुल्लाह ने “सैचुरेशन अटैक” की रणनीति अपनाई है—मतलब एक साथ कई मिसाइलें दागना ताकि आयरन डोम की क्षमता पर बोझ पड़े और कुछ मिसाइलें लक्ष्य तक पहुंच जाएं।
विशेषज्ञों का मानना है कि तकनीकी रूप से यह संघर्ष भविष्य की लड़ाइयों की दिशा तय कर सकता है। यदि हिज़्बुल्लाह की मिसाइलें इसराइल की सुरक्षा प्रणाली को छेद देती हैं, तो यह इसराइल के लिए गंभीर चिंता का विषय होगा। वहीं आयरन डोम की सफलता इसराइल को क्षेत्रीय श्रेष्ठता देने में मदद करेगी।
लेबनान की राजनीतिक अस्थिरता
लेबनान पहले से ही गंभीर राजनीतिक और आर्थिक संकट से जूझ रहा है। सरकार बार-बार गिरती रही है, और संसद में निर्णय लेने की प्रक्रिया ठप पड़ी है। ऐसी स्थिति में हिज़्बुल्लाह के बढ़ते प्रभाव ने देश की आंतरिक स्थिति को और जटिल बना दिया है।
हिज़्बुल्लाह न केवल एक सैन्य संगठन है, बल्कि लेबनान की राजनीति में भी उसकी मजबूत पकड़ है। सरकार में उसकी भागीदारी होने के बावजूद वह स्वतंत्र रूप से इसराइल के खिलाफ हमले करता है, जिससे लेबनान सरकार की स्थिति कमजोर होती है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी यह सवाल उठता है कि लेबनान क्या हिज़्बुल्लाह के फैसलों का समर्थन करता है या नहीं।
इस स्थिति का परिणाम यह होता है कि लेबनान सरकार न तो पूरी तरह से युद्ध रोक सकती है और न ही शांति स्थापित करने में सक्षम है। आम नागरिकों की नाराजगी भी लगातार बढ़ रही है क्योंकि उन्हें युद्ध का खामियाजा भुगतना पड़ रहा है जबकि राजनीतिक नेतृत्व निष्क्रिय नजर आता है।
यदि इस अस्थिरता का समाधान नहीं निकला, तो लेबनान के भीतर गृहयुद्ध जैसी स्थिति बनने का खतरा भी उत्पन्न हो सकता है।
युद्ध के भविष्य की संभावनाएँ
इसराइल और हिज़्बुल्लाह के बीच चल रहे संघर्ष का भविष्य कई कारकों पर निर्भर करता है—राजनीतिक इच्छाशक्ति, अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता, क्षेत्रीय समीकरण और जनता का दबाव। यदि यह संघर्ष जल्द ही नहीं थमता, तो यह एक लंबा और विनाशकारी युद्ध बन सकता है।
संभावनाएँ तीन दिशाओं में जा सकती हैं:
- सीमित युद्ध – जहां दोनों पक्ष सीमित समय और क्षेत्र में संघर्ष कर, फिर पीछे हट जाएं।
- पूर्ण युद्ध – जिसमें लेबनान, सीरिया, ईरान और अमेरिका जैसे पक्ष प्रत्यक्ष रूप से शामिल हो जाएं।
- डिप्लोमैटिक विराम – जहां अंतरराष्ट्रीय दबाव के चलते युद्धविराम लागू हो और शांति वार्ता शुरू हो।
वर्तमान परिस्थिति को देखते हुए यह कहना मुश्किल है कि कौन-सी दिशा ज्यादा मजबूत है। परंतु एक बात स्पष्ट है—यह युद्ध केवल गोली-बम की नहीं, बल्कि विचारधाराओं, रणनीति और राजनीतिक इच्छाशक्ति की भी लड़ाई है। इसका असर दशकों तक पूरे पश्चिम एशिया की शांति और सुरक्षा पर पड़ सकता है।